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हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनके सपूत बुद्धिमान बने और खूब तरक्की करें. उनकी आमदनी में बढ़ोतरी हो और उनकी आयु लम्बी हो. इसी कामना के साथ दो दिवसीय जीवित पुत्रिका यानी जिउतिया व्रत किया जाता है,
जीवित्पुत्रिका या जितिया पर्व हिन्दू धर्म में बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाए जाने वाले पर्वों में से एक है
हिन्दू तिथि के अनुसार जितिया व्रत आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तिथि तक रखा जाता है। छठ की (भांति) तरह यह व्रत भी तीन दिन तक चलता है जिसमे पहला दिन नहाय खाय, दूसरा दिन निर्जला (बिना जल) व्रत और तीसरे दिन व्रत का पारण (फलाहार) होता है। बिहार और उत्तरप्रदेश के कुछ जगहों में इस पर्व को बड़े ठाठबाट से रखा जाता है।
जीवित्पुत्रिका या जितिया पर्व हिन्दू धर्म में बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाए जाने वाले पर्वों में से एक है। जिसे अपनी सपूत संतान की मंगलकामना के लिए मनाया जाता है। इस पर्व को अधिकतर भारत के पूर्वी हिस्सों और उत्तर के कुछ हिस्सों में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन निर्जला उपवास किया जाता है जिसे माताएं अपनी पूत्र के उज्जवल भविष्य और लंबी आयु के लिए रखती है।
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जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व और पूजा विधि
आश्विन माह की कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। माना जाता है जो महिलाएं जीमूतवाहन की पुरे श्रद्धा और विश्वास के साथ पूजा करती है उनके बच्चो को लंबी आयु व् सभी सुखो की प्राप्ति होती है। पूजन के लिए जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प (फूल) आदी अर्पित किया जाता है और फिर पूजा करती है। इसके साथ ही मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की प्रतिमा (मूर्ति) बनाई जाती है। जिसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है। पुत्र की लंबी आयु, आरोग्य तथा कल्याण की मंगल कामना से स्त्रियां इस व्रत को करती है। कहते है जो महिलाएं पुरे विधि-विधान (नियम निष्ठा) से निष्ठापूर्वक कथा सुनकर ब्राह्माण को दान-दक्षिणा देती है, उन्हें पुत्र सुख व उनकी समृद्धि प्राप्त होती है।
जितिया व्रत नियम
इस व्रत को करते समय केवल सूर्योदय से पहले ही कुछ खाया जाता है। सूर्योदय के बाद खाने की सख्त मना होती है पूरे दिन निर्जला रहना होता है।
इस व्रत से पहले केवल ( कम तेल मसाले ) मीठा भोजन ही किया जाता है तीखा (जयकेदार) भोजन करना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता
जितिया व्रत में कुछ भी खाया या पिया नहीं जाता। इसलिए यह निर्जला व्रत होता है। व्रत का पारण अगले दिन प्रातःकाल यानी सुबह किया जाता है जिसके बाद आप कैसा भी भोजन कर सकते है।
जितिया पर्व (जीवित्पुत्रिका व्रत) और व्रत का महत्व
जीवित्पुत्रिका या जितिया पर्व हिन्दू धर्म में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाए जाने वाले पर्वों में से एक है। इस दिन व्रत का खास महत्व होता है जिसे अपनी संतान की मंगलकामना और लंबी आयु के लिए रखा जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार जितिया व्रत आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तिथि तक मनाया जाता है।
व्रत का पहला दिन
जितिया व्रत के पहले दिन को नहाई खाई कहा जाता है, इस दिन महिलाएं प्रातःकाल जल्दी जागकर पूजा पाठ करती है। और एक बार भोजन करती है। उसके बाद महिलाएं दिन भर कुछ भी नहीं खातीं।
जितिया व्रत का दूसरा दिन
व्रत के दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है। यह जितिया व्रत का मुख्य दिन होता है। इस पुरे दिन महिलाएं जल ग्रहण नहीं करती। और पुरे दिन निर्जला उपवास रखती है।
व्रत का तीसरा दिन
यह व्रत का आखिरी दिन होता है। इस दिन व्रत का पारण किया जाता है। वैसे तो इस दिन सभी खाया जाता है लेकिन मुख्य रूप से झोर भात, नोनी का साग, मड़ुआ की रोटी और मरुवा का रोटी सबसे पहले भोजन के रूप में ली जाती है।
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जितिया पर्व की कथा
इस पर्व से एक विशेष कथा जुडी हुई
जीमूतवाहन गंधर्वों के राजकुमार थे, वह बड़े ही उदार व्यक्ति थे. इनके पिता ने वृद्धाआश्रम जाने की सोची. जाने से पहले इन्होंने जीमूतवाहन को राजा के सिहांसन पर बैठा दिया, लेकिन जीमूतवाहन का मन राजकाज में नहीं लगता था. जिससे विमुख होकर जीमूतवाहन ने अपने छोटे भाइयों को राजकाज सौंप दिया और खुद जंगल में अपने पिता के पास चले आए. यहां आकर उन्होंने मलयवती नाम की एक राजकुमारी से विवाह भी कर लिया.
एक दिन जंगल में भ्रमण के दौरान जीमूतवाहन को विलाप करती हुई एक वृद्ध स्त्री मिली. महिला से उन्होंने विलाप करने का कारण पूछा तो महिला ने बताया कि वह शंखचूड़ नाग की माता है जिसे विष्णु के वाहन गरूड़ आज उठाकर ले जाएंगे. यह सून जीमूतवाहन ने खुद गरूड़ के साथ जाने का फैसला किया. अब गरूड़ आया और शंखचूड़ को उठाकर ले जाने लगा, तभी उसे आभास हुआ कि वह शंखचूड़ की जगह किसी व्यक्ति को ले आया है.
एक दिन जंगल में भ्रमण के दौरान जीमूतवाहन को विलाप करती हुई एक वृद्ध स्त्री मिली. महिला से उन्होंने विलाप करने का कारण पूछा तो महिला ने बताया कि वह शंखचूड़ नाग की माता है जिसे विष्णु के वाहन गरूड़ आज उठाकर ले जाएंगे. यह सून जीमूतवाहन ने खुद गरूड़ के साथ जाने का फैसला किया. अब गरूड़ आया और शंखचूड़ को उठाकर ले जाने लगा, तभी उसे आभास हुआ कि वह शंखचूड़ की जगह किसी व्यक्ति को ले आया है.
अब गरूड़ ने जीमूतवाहन से पूछा कि तुम कौन हो. जीमूतवाहन ने कहा कि मैं शंखचूड़ की माता को पुत्र वियोग से बचाना चाहता हूं, तुम भोजन स्वरूप मेरा भोग कर सकते हो. तभी से इस व्रत का प्रचलन हुआ और यह कथा प्रचलित हुई.
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